गुरुवार, 28 अगस्त 2008

कई बीमारियों की एक दवा : नीम - पदमा श्रीवास्तव

नीम एक ऐसा पेड़ है जो सबसे ज्यादा कड़वा होता है परंतु अपने गुणों के कारण चिकित्सा जगत में इसका अपना एक अहम स्थान है।

नीम रक्त साफ करता है। दाद, खाज, सफेद दाग और ब्लडप्रेशर में नीम की पत्ती का रस लेना लाभदायक है। नीम कीड़ों को मारता है इसलिये इसकी पत्ती कपड़ों और अनाजों में रखे जाते हैं। नीम की दस पत्तियां रोजाना खायें रक्तदोष रहीं होगा। नीम के पंचांग जड़, छाल, टहनियां, फूल पत्ते और निंबोली उपयोगी हैं। इन्ही कारणों से हमारे पुराणों में नीम को अमृत के समान माना गया है। अमृत क्या है जो मरते को जिंदा करे। अंधे को आंख दे और निर्बल को बल दे। नीम इंसान को तो बल दोता ही है पेड़-पौधों को भी बल देता है जैसे- खेतों में नीम के पानी की दवा बनाकर डाला जाता है। अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे कि नीम एक औषधि के रूप मे प्रयोग होता है।

नीम, आंख, कान, नाक, गला और चेहरे के लिए उपयोगी, आंखों में मोतियाबिंद और रतौंधी हो जाने पर नीम के तेल को सलाई से आंखों नें अंजल की तरह से लगायें।

आंखों में सूजन हो जाने पर नीम के पत्ते को पीस कर अगर दाई आंख में है तो बाएं पैर के अंगूठे पर नीम का पत्ती को पीस कर लेप करें। ऐसा अगर बाई आंख में हो तो दाएं अंगूठे पर लेप करें। आंखों की लाली व सूजन ठीक हो जायेगी।
अगर कान में दर्द हो या फोड़ाफुंसी हो गयी हो, तो नीम या निंबोली को पीस कर उसका रस कानों मे टपका दें। कान में कीड़ा गया हो, तो नीम की पत्तियों का रस गुनगुना करके इसमें चुटकी भर नमक डालकर टपकायें एक बार में ही कीड़ा मर जायेगा। अगर बहुत जरूरत हो तो दूसरे दिन डालें।
अगर कान में दर्द हो तो 20ग्राम नीम की पत्तियां, 2 तोला नीलाथोथ (तूतिया) डालकर पीस लें इसकी छोटी छोटी गोलियां बनाकर सुखा लें फिर काले तिल या साधारण तेल में पका लें जब टिकिया जल जाये, तो इस तेल को छान कर रख लें अब एक तीली मे रूई लगा कर इस तेल में डुबाकर कान साफ करें बार बार रूई बदलें। अगर कान से पीप आ रहा है तो नीम के तेल में शहद मिलाकर कान साफ करें पीप आना बंद हो जायेगा।
सर्दी जुकाम हो गया हो तो नीम की पत्तियां शहद मिलाकर चाटें। खराश ठीक हो जायेगी।
ह्रदय रोग में नीम रामबाण का काम करता है। अगर आपको ह्रदय रोग हो, तो नीम की पत्तियों की जगह नीम का तेल का सेवन करें। नीम पीस कर त्वचा पर लगायें ज्यादा फायदा होगा।

दांत और पेट के रोग का इलाज

दांत और पेट का एक-दूसरे से सीधा संबंध होता है । दांतों से चबाया भोजन हमारे पेट में जाता है अगर दांत भोजन को चबाकर इस लायक नहीं बना पाते कि वह पेट मे जाकर आसानी से हजम कर सके, तो पेट खराब हो जायेगा। पेट खराब तो होगा ही साथ पेट की कई बीमारियां भी पैदा होगीं। इस कारण वैद्य लोग रोगों का इलाज पेट ही से शुरू करते थे। इसके पीछे कारण यह है कि पेट ठीक तो सब ठीक। इसके लिये दांतों को नीम, बबूल की दातुन से साफ करें अगर संभव हो तो एक बार घर पर ही इसका मंजन को बना लें जिसमें जली सुपारी, जले बादाम के छिलके, 100ग्राम खडिया मिट्टी, 20ग्राम बहेडे, थोड़ी सी कालीमिर्च, 5ग्राम लौंग, एक आधा ग्राम पीपरमिंट इन सब को पीस कर छान लें। इसे मंजन की तरह इस्तमाल करें। दांत की सब बीमारियां, पायरिया, दुर्गंध दूर हो जायेगी। साथ ही नीम के पत्ते भी चबाते रहा करें।
अब पेट के बारे में देखें, अगर अपच हो जाये तो निंबोली खायें रूका हुआ मल बाहर निकालता है। रक्त स्वच्छ करेगा और भूख अधिक लगेगी। बासी खाना खाने से पित्त, उल्टियाँ हो, तो इसके लिये नीम की छाल, सोंठ, कालीमर्च को पीस लें और आठ-दस ग्राम सुबह-शाम पानी से फंकी लें। तीन चार दिनों में पेट साफ हो जायेगा। यदि दस्त हो रही हों, तो नीम का काढ़ा बनाकर लें।
गंदे पानी के मच्छर, मक्खी से होने वाले रोग तेजी से फैलते हैं। इसका उपाय भी नीम से है पांच लौंग, पांच बड़ी इलायची, महानीम(बकायन) की सींके पीसकर। पचास ग्राम पानी में मिलाकर थोड़ा गर्म कर लें ये एक बाऱ की मात्रा है। इसे दो-दो घंटे बाद बनाकर देते रहें है। साथ –साथ हाथ पैरों मे नीम के तेल की मालिश भी करें। कमजोरी दूर होगी। अगर किसी रोगी को पेशाब नहीं आ रही है तो नीम के पत्ते पीसकर पेट पर लगायें ठीक हो जायेगा।
यदि पेट में कीड़े हो, तो (बड़ा हो या बच्चा) नीम की नई कोपलें के रस में शहद मिलाकर चाटें कीड़े समाप्त हो जायेंगे। पानी में नीम के तेल की कुछ बूंदें डालकर चाय की तरह पी जायें बच्चे को 5बूंद बड़ों को 8 बूंद इससे ज्यादा नहीं लेना है। नीम के पत्ते जरा सी हींग के साथ पीस लें और चाट जायें पेट के कीड़े नष्ट हो जायेंगे।

त्वचा व बालों का इलाज

नीम का प्रयोग करें और निखारें अपना सौंदर्य। रक्त को शुद्ध करने के लिये नीम को एक वरदान ही समझिये। नीम की छाल का काढ़ा बनाकर पी लें। यदि नीम की नई कोपलें मिल जाये को 20-25 ले लें चार-पांच दाना काली मिर्च डाल कर बेसन की रोटी में मिलाकर बनायें घी में खूब तर कर लें। इस तरह कम से कम आठ दिन तक खायें। हाथ-पांव में अधिक पसीना आता हो, तो नीम रोगन का तेल अच्छी औषधि है।
चेहरे पर कील मुंहासे होने पर नीम का तेल लगायें। झाईयां और चेचक दाग छुड़ाने के लिये निंबोती का तेल लगायें।
फोड़ेफुसी हो, तो नीम की छाल घिसकर लेप करें।
अगर बालों में लीख जुएं हो, तो नीम का तेल लगायें ।
गंजापन हो गया हो तो नीम का तेल लगायें।
बाल पकने लगे तो नीम तथा बेर की पत्तियां पानी में उबालकर उस पानी से सर धोयें।
यदि बाल काले करना हो, तो नीम को पानी में उबाल कर सर धोयें। कम से कम एक महीना नतीजा आप के सामने होगा।
कुष्ट रोग के लिये नीम एक वरदान के समान है इस रोग का इलाज नीम से हो सकता है। कुष्ट रोग फूट जाये तो नीम के नीचे सोयें, नीम खाओ, नीम बिछाकर सोयें।
बुखार, पुराना बुखार, टाईफाइड हो, तो 20-25 नीम के पत्ती 20-25 काली मिर्च एक पोटली में बांधकर आधा किलो पानी में उबालें पानी खौलने दें ढक्कन लगाकर रखें, ठंडा होने पर चार हिस्सा बनाकर सुबह-शाम दो दिन तक पिलायें फिर देखे बुखार उतरा या नही। इस विधि से तो पुराना से पुराना बुखार भी उतर जाता है।

नीम के गुण - आशीष

वैसे तो हम लोग आजकल पश्चिमी चिकित्सा पद्धति का ही प्रयोग करते हैं, और इसकी अच्छाइयों को झुठलाया नहीं जा सकता है। लेकिन इसकी काफ़ी कमियां भी जैसे कि अनजाने प्रभाव या साइड इफ़ेक्टस। इस मामले में भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा काफ़ी बेहतर है और इनमें से कुछ उपचार तो अब घरेलू हो चुके हैं। ऐसी ही कुछ दवाओं में है नीम।

नीम एक बहुत ही अच्छी वनस्पति है जो कि भारतीय पर्यावरण के अनुकूल है और भारत में बहुतायत में पाया जाता है। इसका वानस्पतिक नाम है ‘Melia azadirachta अथवा Azadiracta Indica’। इसका स्वाद तो कड़वा होता है लेकिन इसके फायदे तो अनेक और बहुत प्रभावशाली हैं, और उनमें से कुछ नीचे लिखता हूं।

१- नीम का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों के निवारण में सहायक है।
२- नीम की दातुन करने से दांत और मसूड़े स्वस्थ रहते हैं।
३- नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और कांतिवान होती है। हां पत्तियां कड़वी होती हैं, लेकिन कुछ पाने के लिये कुछ तो खोना पड़ेगा मसलन स्वाद।
४- नीम की पत्तियों को पानी में उबाल उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं, और ये खासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।
५- नीम मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को दूर रखने में अत्यन्त सहायक है। जिस वातावरण में नीम के पेड़ रहते हैं, वहां मलेरिया नहीं फैलता है।
६- नीम के फल (छोटा सा) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये तो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
७- नीम के द्वारा बनाया गया लेप वालों में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं।
८- नीम की पत्तियों के रस को आंखों में डालने से आंख आने की बीमारी (कंजेक्टिवाइटिस) समाप्त हो जाती है।
९- नीम की पत्तियों के रस और शहद को २:१ के अनुपात में पीने से पीलिया में फायदा होता है, और इसको कान में डालने कान के विकारों में भी फायदा होता है।
१०- नीम के तेल की ५-१० बूंदों को सोते समय दूध में डालकर पीने से ज़्यादा पसीना आने और जलन होने सम्बन्धी विकारों में बहुत फायदा होता है।
११- नीम के बीजों के चूर्ण को खाली पेट गुनगुने पानी के साथ लेने से बवासीर में काफ़ी फ़ायदा होता है।
उपरोक्त दिये गये फायदे कुछ फायदों में से हैं जो मुझे मालूम थे और कइयों का हमको अंदाज़ा भी नहीं है। और जानकारी मिलने पर इस पृष्ठ पर पुन: लिखूंगा।
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नीम


पौराणिक भाई जहां पर भारत की तीन नदियां (गंगा, यमुना और सरस्वती) मिलती हैं, उस स्थान को तीर्थराज, त्रिवेणी व प्रयागराज कहते हैं - वहां स्नान करने व उसकी तीर्थ यात्रा करने से सब पापों से छुटकारा मिल जाता है और परमपद मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह बात तो सर्वथा मिथ्या है। किन्तु नीम, पीपल और वट (बड़) इन तीनों वृक्षों को एक साथ एक ही स्थान पर लगाने की बहुत ही पुरानी परिपाटी भारतवर्ष में प्रचलित है और इसे भी त्रिवेणी कहते हैं।
इन तीन वृक्षों की त्रिवेणी का औषध रूप में यदि यथोचित रूप में सेवन किया जाये तो बहुत से भयंकर शारीरिक रोगों से छुटकारा पाकर मानव सुख का उपभोग कर सकते हैं । ये तीनों ही वृक्ष अपने रूप में तीन औषधालय हैं । इसीलिये भारतवर्ष के लोग इसका न जाने बहुत प्राचीनकाल से नगरों में, ग्रामों में, सड़कों पर, तड़ाग व तालाबों पर सर्वत्र ही इनको आज तक लगाते आ रहे हैं । इसको धर्मकृत्य व पुण्यकार्य समझकर बहुत ही रुचि से इन वृक्षों को लगाते तथा जलसिंचन करते हैं तथा बाड़ लगाकर इनकी सुरक्षा का सुप्रबंध भी करते हैं।

निम्ब: (नीम)

नीम कड़वा व कड़वे रस वाला, शीत (ठंडा), हल्का, कफरोग, कफपित्त आदि रोगों का नाशक है । इसका लेप और आहार शीतलता देने वाले हैं । कच्चे फोड़ों को पकाने वाला और सूजे तथा पके हुए फोड़ों का शोधन करने वाला है । राजनिघन्टु में इसके गुण निम्न प्रकार से दिये गए हैं : नीम शीतल, कडुवा, कफ के रोगों को तथा फोड़ों, कृमि, कीड़ों, वमन तथा शोथ रोग को शान्त करने वाला है। बहुत विष और पित्त दोष के बढे हुए प्रकोप व रोगों को जीतने वाला है और हृदय की दाह को विशेष रूप से शान्त करने वाला है। बलास तथा चक्षु संबंधी रोगों को जीतने वाला है।


बलास फेफड़ों और गले के सूजन के रोगों का नाम है। इसको भी निम्ब दूर करता है । बलास में क्षय यक्ष्मा तथा श्वासरोग के समान कष्ट होता है।

नीम के पत्ते नेत्रों को हितकारी, वातकारक, पाक में चरपरे, सर्व की अरुचि, कोढ, कृमि, पित्त तथा विषनाशक हैं। नीम की कोमल कोंपलें व कोमल पत्ते संकोचक, वातकारक तथा रक्तपित्त, नेत्ररोग और कुष्ठ को नष्ट करने वाले हैं।

नीम के फल कड़वे, पाक में चरपरे, मलभेदक, स्निग्ध, हल्के, गर्म और कोढ, गुल्म बवासीर, कृमि तथा प्रमेह को नष्ट करने वाले हैं। नीम के पके फलों के ये गुण हैं: पकने पर मीठी निम्बोली (फल) रस में कड़वी, पचने में चरपरी, स्निग्ध, हल्की गर्म तथा कोढ, गुल्म, बवासीर, कृमि और प्रमेह को दूर करने वाली है।

नीम के फूल पित्तनाशक और कड़वे, कृमि तथा कफरोग को दूर करने वाले हैं।

नीम के डंठल कास (खांसी), श्वास, बवासीर, गुल्म, प्रमेह-कृमि रोगों को दूर करते हैं।

निम्बोली की गिरी कुष्ठ और कृमियों को नष्ट करने वाली हैं। नीम की निम्बोलियों का तेल कड़वा, चर्मरोग, कुष्ठ और कृमिरोगों को नष्ट करता है।

निम्बादिचूर्ण : नीम के पत्ते 10 तोले, हरड़ का छिलका 1 तोला, आमले का छिलका 1 तोला, बहेड़े का छिलका 1 तोला, सोंठ 1 तोला, काली मिर्च 1 भाग, पीपल 1 तोला, अजवायन 1 तोला, सैंधा लवण 1 तोला, विरिया संचर लवण 1 तोला, काला लवण 1 तोला, यवक्षार 2 तोले - इन सब को कूट छान कर रख लें। इसको प्रात:काल खाना चाहिये। मात्रा 3 माशे से 6 माशे तक है। यह विषम ज्वरों को दूर करने के लिए सुदर्शन चूर्ण के समान ही लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इसके सेवन से प्रतिदिन आने वाला, सात दिन, दस दिन और बारह दिन तक एक समान बना रहने वाला धातुगत ज्वर और तीनों रोगों से उत्पन्न हुआ ज्वर - इन सभी ज्वरों में इसके निरंतर सेवन से अवश्य लाभ होता है।

नीम का मलहम : नीम का तैल 1 पाव, मोम आधा पाव, नीम की हरी पत्तियों का रस 1 सेर, नीम की जड़ की छाल का चूर्ण 1 छटांक, नीम की पत्तियों की राख आधा छटांक। एक लोहे की कढाई में नीम का तैल, नीम की पत्तियों का रस डालकर हल्की आंच पर पकायें। जब जलते-जलते छटांक, आधी छटांक रह जाये तब उसमें मोम डाल दें। जब मोम गलकर तैल में मिल जाये तब कढाई को चूल्हे से नीचे उतार लेवें। फिर नीम की छाल का चूर्ण और नीम की पत्तियों की राख उसमें मिला देवें। यह नीम का मलहम बवासीर के मस्सों, पुराने घाव, नासूर जहरीले घावों पर लगाने से बहुत लाभ करता है। यह घावों का शोधन और रोपण दोनों काम एक साथ करता है। सड़े हुए घाव, दाद, खुजली, एक्झिमा को भी दूर करता है। पशुओं के घावों को भी ठीक करता है ।

महानिम्ब (बकायण)

महानिम्ब बकायण के विषय में धनवन्तरीय निघण्टु में इस प्रकार लिखा है :

महानिम्ब: स्मृतोद्रेको विषमुष्टिका।
केशमुष्टिर्निम्बर्को रम्यक: क्षीर एव च॥

बकायण को संस्कृत में महानिम्ब:, उद्रेक:, विषमुष्टिक:, केश-मुष्टि, निम्बरक, रम्यक और क्षीर नाम वाला कहा गया है।बकायण के वृक्षों में फाल्गुन और चैत्र के मास में एक दूधिया रस निकलता है। यह रस मादक और विषैला होता है। इसीलिये फाल्गुन और चैत्र के मास में इस वनस्पति का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

बकायण का वृक्ष सारे ही भारत में पाया जाता है। इसके वृक्ष 32 से 40 फुट तक ऊंचे होते हैं। इसका वृक्ष बहुत सीधा होता है। इसके पत्ते नीम के पत्तों से कुछ बड़े होते हैं इसके फल गुच्छों के अंदर लगते हैं। वे नीम के फलों से बड़े तथा गोल होते हैं। फल पकने पर पीले रंग के होते हैं। इसके बीजों में से एक स्थिर तैल निकलता है जो नीम के तैल के समान ही होता है। इसका पंचांग अधिक मात्रा में विषैला होता है।

इसके नाम अन्य भाषाओं में निम्न प्रकार से हैं : संस्कृत में महानिम्ब, केशमुष्टि, क्षीर, महाद्राक्षादि। हिन्दी में बकायण निम्ब, महानिम्ब, द्रेकादि। गुजराती - बकाण, लींबड़ो। बंगाली में घोड़ा नीम। फारसी- अजेदेदेरचता, बकेन।पंजाबी बकेन चेन, तमिल : मलः अबेबू सिगारी निम्ब, उर्दू - बकायन। लेटिन melia a zedaracha ।

मुस्लिम देशों में इस वनस्पति का उपयोग बहुत बड़ी मात्रा में किया जाता है। फारस के हकीम इसकी जानकारी भारत से ले गए थे। उन लोगों के मत से इस वृक्ष की छाल, फूल, फल और पत्ते गर्म, और रूक्ष होते हैं। इसके पत्तों कारस अन्त:प्रयोगों में लेप से मूत्रल, ऋतुस्राव नियामक और सर्दी के शोथ को मिटाने वाला होता है। अमेरिका में इसके पत्तों का काढा हिस्टेरिया रोग को दूर करने वाला, संकोचक और अग्निवर्धक माना जाता है। इसके पत्ते और छाल गलितकुष्ठ और कण्ठमाला को दूर करने के लिए खाने और लगाने के कार्य में प्रयुक्त किए जाते हैं। ऐसा विश्वास वहां पर है कि इसके फलों से पुलिटश के कृमियों का नाश हो जाता है इसीलिये चर्मरोगों के नाशार्थ यह उत्तम औषधि मानी जाती है।
इंडोचाइना में इसके फूल और फल अग्निवर्धक, संकोचक और कृमिनाशक माने जाते हैं। कुछ विशेष प्रकार के ज्वर और मूत्र संबन्धी रोगों में इसके फलों का प्रयोग होता है ।

मीठा नीम

इसे कढी-पत्ता का पेड़ भी कहा जाता है। मीठे नीम के कैडर्य, महानिम्ब:, रामण:, रमण:, महारिष्ट, शुक्लसार, शुक्लशाल:, कफाह्वय:, प्रियसार और वरतिक्तादि संस्कृत में नाम हैं। हिन्दी में मीठा नीम। मराठी कलयनिम्ब, पंजाबी गंधनिम्ब, तमिल करुणपिल्ले, तेलगू करिवेपमू, फारसी सजंद करखी कुनाह, लेटिन murraya koenigie नाम भिन्न-भिन्न भाषाओं में मीठे नीम के हैं।

मीठे नीम के पेड़ प्राय: भारतवर्ष के सभी भागों में पाये जाते हैं। इसके पेड़ की ऊंचाई 12 से 15 फुट तक की होती है। इसके पत्ते देखने में नीम के पत्तों के समान ही होते हैं किन्तु ये कटे किनारों के नहीं होते। चैत्र और वैशाख में इसके पेड़ पर सफेद रंग के फूल आते हैं। इसके फल झूमदार होते हैं। पकने पर इस के पत्तों का रंग लाल हो जाता है । इसके पत्तों में से भी एक प्रकार का सुगंधित तैल निकलता है। यूनानी मत में यह पाचक, क्षुधा कारक, धातु उत्पन्न करने वाला, कृमिनाशक, कफ को छांटने वाला और मुख की दुर्गन्ध को मिटाने वाला होता है । यह दूसरे दर्जे में गर्म और खुश्क होता है । इसकी जड़ को घिसकर विषैले कीड़ों के काटने के स्थान पर लगाने से लाभ होता है।

भोजन के रूप में : इसके सूखे पत्ते कढी में छोंक लगाने तथा दाल को स्वादिष्ट बनाने के कार्य में आते हैं। इनको चने के बेसन में मिलाकर पकौड़ी भी बनाई जाती है। मूत्राशय के रोगों में इसकी जड़ों का रस सेवन लखीमपुर आसाम में अच्छा उपयोगी माना जाता है।इंडोचाइना में इसका फल संकोचक माना जाता है और इसके पत्ते रक्तातिसार और आमातिसार को दूर करने के लिए अच्छे माने जाते हैं।

सारांश यह है कि मीठे नीम के वही गुण हैं जो प्राय: करके कड़वे नीम में हैं तथा जो धनवन्तरीय निघन्टु में लिखे हैं वही प्रयोग करने पर यथार्थ रूप में पाये गए हैं।

कड़वे निम्ब, मीठे निम्ब तथा बकायण के गुण मिलते हैं । इस प्रकार नीम व नीमवृक्ष में इतने गुण हैं कि उसकी प्रशंसा जितनी की जाये उतनी थोड़ी है। सचमुच त्रिवेणी में स्नान करना तो मूर्खता है किन्तु नीम, पीपल और बड़ की त्रिवेणी का सेवन सब दुखों को दूर करके प्राणिमात्र के कष्ट दूर करके सुखी बनाता है।

साभार www.jatland.com

सोमवार, 25 अगस्त 2008

आषाढ मास में पीपल पूजा


नवभारत टाइम्स
पं. केवल आनंद जोशी ( kajoshi46@yahoo.co.in )
पीपल एक ऐसा वृक्ष है, जो आदि काल से स्वर्ग लोक के वट वृक्ष के रूप में इस धरती पर ब्रह्मा जी के तप से उतरा है। पीपल के हर पात में ब्रह्मा जी का वास माना जाता है। आदि शंकराचार्य ने पीपल की पूजा को जहां पर्यावरण की सुरक्षा से जोड़ा है , वहीं इसके पूजन से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप दूर होने की बात भी कही है।

पीपल न केवल एक पूजनीय वृक्ष है बल्कि इसके वृक्ष खाल , तना, पत्ते तथा बीज आयुर्वेद की अनुपम देन भी है। पीपल को निघन्टु शास्त्र ने ऐसी अजर अमर बूटी का नाम दिया है , जिसके सेवन से वात रोग , कफ रोग और पित्त रोग नष्ट होते हैं।

भगवद्गीता में भी इसकी महानता का स्पष्ट उल्लेख है। गीता में इसे वृक्षों में श्रेष्ठ ’ अश्वतथ्य ’ को अथर्ववेद में लक्ष्मी , संतान व आयुदाता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। कहा जाता है कि इसकी परिक्रमा मात्र से हरोग नाशक शक्तिदाता पीपल मनोवांछित फल प्रदान करता है। गंधर्वों , अप्सराओं , यक्षिणी , भूत - प्रेतात्माओं का निवास स्थल , जातक कथाओं , पंचतंत्र की विविध कथाओं का घटनास्थल तपस्वियों का आहार स्थल होने के कारण पीपल का माहात्म्य दुगुना हो जाता है।

हिन्दू संस्कृति में पीपल देव वृक्ष माना जाता है। उनकी अगाध आस्था में सराबोर पीपल को देव निवास मानते हुए इसको काटना या मूल सहित उखाड़ना वर्जित है , अन्यथा देवों की अप्रसन्नता का परिणाम अहित होना है। भारत में उपलब्ध विविध वृक्षों में जितना अधिक धार्मिक एवं औषधीय महत्व पीपल का है , अन्य किसी वृक्ष का नहीं है। यही नहीं पीपल निरंतर दूषित गैसों का विषपान करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे शिव ने विषपान किया था।

यह दूषित गैस नष्ट करने हेतु प्राणवायु निरंतर छोड़ता रहता है , क्योंकि वृक्ष घना होने के बावजूद इसके पत्ते कभी भी सूर्य प्रकाश में बाधक नहीं बनते। यह छाया देता है किन्तु अंधकार से इसका कोई सरोकार नहीं है। संभवतः यही कारण है कि सभी अमृत तत्व पाए जाने के कारण महादेव स्वरूप पीपल लैटिन भाषा में पिकस रिलिजियोसा के नाम से जाना जाता है। प्रायः प्राचीन दुर्ग भवन व मंदिर में पाए जाने वाले वृक्ष पीपल के नीचे शिवलिंग या शिव मंदिर पाया जाना भी स्वाभाविक बात है। भारतीय आस्था के अनुसार पीपल के भीतर तीनों देवता अर्थात ब्रह्मा , विष्णु और महेश का निवास माना जाता है। अतः इसके नीचे शिवालय होने पर इसे पीपल महादेव के नाम से भी सम्मानित किया जाता है।

सदैव गतिशील प्रकृति के कारण इसे चल वृक्ष भी कहते हैं। पीपल की आयु संभवतः 90 से 100 सालों के आसपास आंकी गई है। इसके पत्ते चिकने , चौड़े व लहरदार किनारे वाले पत्तों की आकृति स्त्री योनि स्वरूप होते हैं। संभवतः इतिज मासिक या गर्भाशय संबंधी स्त्री जनित रोगों में पीपल का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पीपल की लंबी आयु के कारण ही बहुधा इसमें दाढ़ी निकल आती हैं। इस दाढ़ी का आयुर्वेद में शिशु माताजन्य रोग में अद्भुत प्रयोग होता है। पीपल की जड़, शाखाएं, पत्ते, फल, छाल व पत्ते तोड़ने पर डंठल से उत्पन्न स्राव या तने व शाखा से रिसते गोंद की बहुमूल्य उपयोगिता सिद्ध हुई है।

अथर्ववेद में पीपल को अश्वत्थ के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि चाणक्य के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य से जगह - जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे। पानी को शुद्ध करने के लिए जलपात्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते डालने की प्रथा अति प्राचीन है। कुएं के समीप पीपल का उगना आज भी शुभ माना जाता है। हड़प्पा कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखनो को मिलती है।

तंत्र मंत्र की दुनिया में भी पीपल का बहुत महत्व है। इसे इच्छापूर्ति धनागमन संतान प्राप्ति हेतु तांत्रिक यंत्र के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। सहस्त्रवार चक्र जाग्रत करने हेतु भी पीपल का महत्व अक्षुण्ण है। पीपल भारतीय संस्कृति में अक्षय ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में विद्यमान है।

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